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Tuesday, May 7, 2019

अतिथि


अतिथि! सुना है तुम आ रहे हो,
स्वागत करता हूँ,
सच कहूं! कुछ संशय में हूँ,
क्या तुम्हें निमंत्रण देना उचित था?
क्या अभी भी रोक दूं तुम्हें आने से?

विविधताओं, अनिश्चितताओं से भरा यह संसार,
गूढ़ रहस्यों और जटिलताओं से भरा यह जीवन,
इस आमंत्रण से तुम्हारी मुश्किलें तो नहीं बढ़ा दी मैंने?
विचारों के इस गुम्फन से थकित और व्यथित होता हूँ,
फिर भी! चल पड़े हो तो आओ, स्वागत है |

तुम्हारी क्या और कैसे मदद कर पाऊंगा?
भौतिक सुख की सारी सुविधाएं उप्लब्ध होंगी यहाँ,
फिर भी इस साधन मात्र से तुम प्रसन्न रहोगे ?
संदेह है मुझे,
चलो! सिधार्थ की कहानी सुनाता हूँ|

अनेकोनेक भोग-विलासों में निमज्जित रहने पर भी,
सिधार्थ प्यासा था - पीड़ित तथा व्याकुल,
उसकी विकल वेदना में सत्य की अभिलाषा थी,
अनुसंधित्सु! तडपा और भटका वह,
गहन आत्मान्वेषण के प्राप्य ने सिधार्थ को बुद्ध बना दिया|

अतिथि! कितना कुछ कहना चाहता हूँ,
लेकिन मैं स्वयं ही यहाँ असहज अनुभव करता हूँ,
मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है?
कब आएगा वो पल ?
जब मैं निश्चिन्त इस कोलाहल से विदा ले पाउँगा,

क्या तुम भी मेरी तरह इसी भांति विचलित होगे?
हाँ मैंने बुलाया था तुम्हें,
तुमसे मिलने की उत्कंठा थी,
तथा अस्तित्व की चुनौतियों से तुम्हें परिचित कराने की ग्लानि भी,
स्नेह स्वीकार करना और अपराध क्षमा|

देखो! ये पेड़, ये फूल, ये चहचहाते पक्षी, ये फुदकती गिलहरी,
ये हवा, यह बहता पानी,
सब आत्मनिर्भर, स्व-प्रेरित, स्वतः गतिमान हैं,
संचालित हैं,
उस सर्वत्र गुंजायमान मौन के कम्पनों से|

हे अतिथि,
तुम भी स्वावलंबी बनना,
परिश्रमी, धैर्यशाली, सुख-दुःख में समान,
विनम्र, विवेकी, और संवेदनशील,
करुणामय, सबको साथ लेकर चलना|

आनंद बटोरने में नहीं,
अर्जित कर उसे बांटने में है,
इस अमृत-वाणी को,
प्राणों में बसा, जीवन का आधार बना,
अपना पथ प्रशस्त करना|

आओ अतिथि मित्र!
तुम्हारा अभिनन्दन!

Thursday, January 31, 2019

तुम ही तो हो


सुबह की खिलखिलाती किरणों में,
जब देखी मैंने परछाई फूल की,
और फिर देखा,
स्वाभिमान की आभा से मंडित,
कुसुमित उस फूल को,
जो था अपनी गरिमा में शोभायमान,
आहिस्ता से, दिल के कोने से कहीं,
ये आवाज़ आई,
यह गर्वित, पुष्पित शोभा तुम ही तो हो|

चलते-चलते,
जब थक गया मैं,
स्वेद-स्नात, हैरान और परेशां,
सोचते हुए ये,
कैसा ये सफ़र, मंजिल है कहाँ?
उस समय जो चली शीतल मंद बयार,
दिल के कोने से
, आहिस्ता से,
वही आवाज़ आई,
ये ठंडा एहसास तुम ही तो हो|

ज़िन्दगी की जंग में,
लड़ता रहा, गिरता रहा,
गिरते डरते, उठते, सीखते हुए,
अनवरत प्रयासों से,
जब पार की जीत की वो रेखा,
मेरे मन ने मुझसे, आहिस्ता से,
फिर कहा,
तमाम हासिलों की धडकनों में,
तुम ही तो हो|

सुकून की तलाश में भागता रहा पाने को,
दौलत और शोहरत,
बहकता रहा,
न जाने किन गलियों में,
अनेकों उपलब्धियों-प्रशस्तियों के बावजूद,
जब वो मुखड़ा देखा तुम्हारा,
अंतर्मन से, आहिस्ता से,
फिर वो ही आवाज़ आई,
सुकून तुम ही तो हो|

Sunday, November 18, 2018

जन्म-दिवस


वह मिला मुझे गली के उस मोड़ पर,
थोडा व्यग्र, थोडा निराश,
देख उसे सोचा मैंने,
क्यूँ पडूं इन चक्करों में?
मेरी खुद की दशा क्या बेहतर है?
किन्तु पता नहीं क्या था उसकी दृष्टि में,
मैं जाते जाते ठहरा और पूछा,
भाई! कोई help चाहिए ?

देखा उसने,
पर बोला नहीं कुछ,
और फिर बोल पड़ा,
अच्छा सुनो! बैठोगे थोड़ी देर ?
बड़ी थकान लग रही है|
थका तो मैं भी था,
पता नहीं किस वजह से?
बैठ गया,

हम दोनों आश्चर्यजनक तरीके से चुप रहे-बैठे रहे,
धीरे से उसने कहा,
आज मेरा जन्म-दिवस है,
और मुझे न जाने क्यूँ इस दिन बड़ी प्यास लगती है,
“Happy b’day to you” -मैंने हाथ बढ़ाते हुए कहा|
मौन रहते हुए ही उसने स्वीकार की मेरी शुभकामना,
उसकी प्रतिक्रिया-विहिनता पर,
मैं सोचने को विवश था|

रास्ता भूल गया हूँ मैं,
कहाँ जाना है आखिर ये भी पता नहीं,
रूक जाऊं तो कहीं छूट न जाऊं,
इसी डर से चलता जाता हूँ,
हर साल जब लोग मुझे इसी दिन बधाई देते हैं,
मेरी थकान बढ़ जाती है,
और मिथ्या की इस मरीचिका से न बुझने वाली,
मेरी प्यास और विकल हो जाती है,

ये कहते-कहते वह रो पड़ा,
उसके रुदन में उसके पूरे वजूद की पीड़ा का दर्द था,
अजीब सी ही थी उसकी आवाज़,
जिसमें मुझे स्वयं की,
और न जाने कितने ही आवाज़ों की गूँज सुनायी दी|
थोड़ी देर हम चुप रहे,
फिर उसी वेदना-पूरित स्वर में उसने क्रंदन किया,
ऐसी सस्ती ज़िन्दगी का क्या मतलब यार?

मेरी थकान और प्यास को भी,
कुछ दिशा मिल रही थी,
कुछ टटोल रहा था मैं भी,
और अचानक आंसू छलक पड़े,
उसने छू दिया था अस्तित्व-सितार का वो तार,
जो पता नहीं कब से झंकृत ही नहीं हुआ था,
यद्यपि प्रति-वर्ष इस सितार की विधिवत पूजा होती है,
मिठाइयों और बधाइयों के साथ|

मैंने उसकी तरफ देखा,
और एक चांटा जड़ दिया,
वह उसी तरह शुष्क और मौन ही रहा,
मैंने कहा,
अरे यार!
बदले में मार तो देते,
मुझे अभी ठीक से रोना था,
धुलना चाहता हूँ मैं|

पता ही नहीं चला,
करीब घंटा गुजर गया था,
दुनिया की दौड़ की पुकार को,
अनदेखा कर,
हम बैठे रहे,
हम दोनों ही अब,
न जाने क्यूँ,
सहज और हल्का महसूस कर रहे थे|

जानते हो?
इस डर से इतना डरने की ज़रुरत नहीं,
हाँ- डर तो लगता है,
क्यूंकि पता नहीं जाना कहाँ है,
जहाँ सभी जा रहे हों,
वही सही रास्ता हो – ज़रूरी तो नहीं,
और क्या बाकियों को पता है,
कि जाना कहाँ है और क्यूँ?

पर जाना तो पड़ेगा ही
यहाँ नहीं तो वहाँ,
निकल कर ही तो ज्ञात होगा,
कि रास्ते में क्या है?
ये हर पड़ाव पर पहुँचने का दर्द,
और पहुँच जाने की विशिष्टता,
इन समस्त जय-पराजय, हर्ष-विषाद की अनुभूतियों का समुच्चय ही,
क्या पता गंतव्य हो?

या फिर न हो,
कुछ भी न हो,
किन्तु खोजकर ही पता चलेगा ना,
कि अनुसंधानार्थ कुछ है भी या नहीं?
तो फिर? मैंने प्रश्न किया,
यह भ्रमण, यह अन्वेषण की प्रक्रिया ही है जीवन?
हाँ!,
अब फिर से wish करोगे मुझे?

एक और साल का तोहफा मुबारक मित्र!
समय के इस उपहार से,
तुम अंतर-वाह्य के रहस्यों का उद्घाटन कर सको,
मेरी शुभकामनाएं!
वो मुस्कुराया,
और मौन ही रहा,
हम कुछ देर आराम से बैठे रहे,
और फिर अपने-अपने रास्ते चल दिए|

Tuesday, October 30, 2018

अव्यक्त कविता


मैं चला जाऊंगा एक दिन मगर,
कवितायेँ मेरी बोलेंगी,
करेंगी उद्घाटन मेरे मन-रहस्य का,
जो थी तीक्ष्ण तड़पन तुम्हें पाने की,
वो चाह उन पंक्तियों में तुम्हें टटोलेगी|

लेकिन है कहाँ वो कविता?
जिसमे गुथे हों,
वो भाव, वो शब्द, वो अनिर्वचनीय वेदना,
जो तुम्हारे प्रति,
मेरे प्रेम की भव्यता का द्योतक हो|

अच्छा सुनो तो,
अनिवार्य है कि कविता केवल शब्दों में विद्यमान हो?
तुम्हारी उपस्थिति में,
मेरे सुध-बुध खो जाने की प्रक्रिया,
क्या कविता नहीं है?

तुम्हारी आवाज़ की खनक,
सरगम में पिरोई रागिनी की मधुरता लिए,
जब मुझे तुम्हारे सरस मोह-पाश में,
बिद्ध कर लेती है,
क्या वो कविता नहीं है?

रूठ जाने पर वो तुम्हारा मुखावेश,
और मेरे अंतर्मन में संचारित भावों का उधेड़बुन,
तद्जनित भयमिश्रित प्रेम के रोमांच से,
मेरा कुछ कहते हुए भी न कह पाना,
क्या कविता नहीं है?

अब बताओ ज़रा!
क्या आसान है -इन सबको शब्दों में बटोरना और व्यक्त करना?
और मैं क्यूँ ही रचूँ कविता?
जब तुम्हारे स्मरण मात्र से ही,
मैं स्वयं कविता बन जाता हूँ|

Thursday, September 27, 2018

Eyes of Heaven


It was a summer’s day,
When I saw you in your flowering beauty,
I wondered!
Whether the dress adorned you or you adorned the dress?
I wished I could say something,
Could greet you, could praise you,
All I could do was,
To watch you silently and in awe,

I hope these lines would convey all I wanted to say,
The depth, the intensity, the passion and the vastness
Of that love,
Which resides in my heart and
Waiting for your touch to seal it and join for eternity,
A bond- where none of us would possess each other,
But would intertwine each other,
To explore in depth and drink from the source of creation,

We shall not let anything worldly to sully this union,
A union made out of concoction of,
No expectation, no judgment, no guilt and no shame,
We shall thus,
Set each other free,
Carrying that sacred love inside,
We shall watch and care for each other,
Through eyes of heaven!

Wednesday, August 8, 2018

Your Smile

Your smile bewilders me,
It is not of this earth,
It seems to be powered by that invisible force,
Which eludes,
Even the celestial Gods

That pose, that curve of your body,
The hairs,
Touching the blossomed cheeks,
And acting as the guards of that precious smile,
It all bewitches me

Those rounded ripe protrusions,
Are the fruits of your youth tree,
Filled with the vines of never ending passion,
These treasures,
Adorn the garden of my life

You have enraptured me,
Making me prisoner of your charm,
I am so captivated,
Don't ever want,
To break the threads of this knot

Friday, August 3, 2018

Wait


I have waited years for this moment,
Which seems to have arrived just like that,
I have pained for it all along,
Which appears to have accidentally happened,
It’s the gift of all that toil,
Or perhaps my readiness to be worthy of this moment,
Whatever it is,
It is profoundly beautiful

Your voice, your touch, your smile,
Nothing has ever melted me like this,
I become a child in your presence,
Totally unarmed & totally naked,
I wonder why you caress me like that,
It vaporizes all my troubles,
And touches the nerves,
Which takes me to a different world

The world around had disappeared,
When we were together,
You were the center of the Universe,
And that’s all that was there,
Your grace, your simplicity, your composure,
Enveloped my entire being,
These were the stuff,
Which defined the word ‘beauty’

Are you startled by my mesmerization ?
Are you amazed at your flowering ?
Which is nourished by my words and gaze?
I too am unable to name this magic,
That has gripped us in its fold,
I can only feel and say,
You are the answer to soul’s cry,
You are the divinity personified

O God! Take care of her,
Take care of her for me,
She is very delicate,
And she should be handled like this,
I should be her armour,
In all her troubles,
And no trouble should dare,
To torment her ever
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