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Monday, July 6, 2009

सौंदर्य का दर्शन

भावनाओं के वर्तुलाकार वातचक्र में सौंदर्य को सीमित करना या सौंदर्य के अथाह सागर में भावनाओं की थाह लेना? सौंदर्य की पवित्रता में स्वयं का शुद्धिकरण या सौदर्य के संकीर्ण दर्शन का पवित्रता की स्गिन्धता से प्रक्षालन? यदि सौंदर्य व्यापक, सर्वव्याप्त है, आनंद का जनक है, तब इसका उदबोध सृष्टि के विशिष्ट पदार्थों में ही क्यूँ? चाहें वे विशिष्ट पदार्थ अपनी -अपनी विशिष्टता में कितनी ही समानता रखते हों और जिन मानदंडों पर उनकी विशिष्टता स्थापित हो, वे मानदंड कितने ही objective क्यों न हों?

यदि सौंदर्य संकेंद्रित नहीं तो क्यूँ इसकी तीव्रता स्थानीय व सामयिक है? क्या मोह का उदभिद सौंदर्य के एकपक्षीय दृष्टिकोण से संभूत, सीमित दृष्टि से पल्लवित होता है? तब सौंदर्य को समग्र रूप में उसकी उद्धत धारा के हिल्लोलों से उच्छलित व उनके मूल में सतत प्रवाहमान, अनंत गति का अनुशीलन करने वाली असीम आनंद की वाहक अवलोकमान दृष्टि कैसे प्रदान की जाए?

तुम सौंदर्य की सर्वमान्य, सुप्रतिष्ठित प्रतिमूर्ति नहीं, तदैव तुममें निहित आनंद कोष की रूप-राशि का कौन सा भाव मुझे इस अवश आकर्षण में पाशबद्ध किये है?

ऐ-हुस्न-ए-बेपरवाह! क्या तुम्हें स्वयं अपनी सौंदर्य की विशिष्टता का बोध है?

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