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Monday, January 29, 2018

अदृश्य प्रेम

वह मेरा अद्भुत, अरूप, निराकार प्रेम,
फिर भी कैसा विचित्र, सरूप, साकार प्रेम,
कितने ही रूपों में इस अरूप को सांचना चाहा,
कितने ही आकारों में इस निराकार को आरोपित किया,
कितने ही तालों से उसे गति देना चाहा,
कितने ही सुरों में उसकी वाणी को पिरोया,
कितने ही मुकुलों के उन्मेष में उस स्मित को ढूढना चाहा,
नभचरों की स्वछंदता में उसकी उन्मुक्तता अन्वेषित करनी चाही|

पर व्यर्थ गयी थी चेष्टा,
स्यात वह है सुन्दर से भी सुन्दरतम- फिर भी अपूर्ण,

अब चाहता हूँ अपनी निर्बद्ध भावनाओं को प्रसूनों में उडेलना,
चाहता हूँ निज तड़पन का मैं सागर की लहरों में विसर्जन,

हे प्रकृति - कहाँ है मेरा प्रियतम?
क्या तूने छिपा रखा है उसे तथा,
अपने विभावों से उसका सन्देश लाती है मुझे?

ऐ स्वच्छ विशाल नीलाम्बर,
तुझे बेंधती,
वृक्षों के हरित पर्ण से प्रकीर्णित रश्मियों की भांति,
प्रिय के अदृश्य तेजोस्मित मंडल की दीप्ति में,
अपने ह्रदय के विभिन्न खण्डों में,
मैं प्रियतम के भिन्न बिम्बों को देखता हूँ,

किन्तु मेरे प्रिय! तेरे अन्वेषण में ज्ञात नहीं कि,
मैं तुझे पा रहा हूँ या स्वयं को खो रहा हूँ?
यदि स्वयं को मिटाने में ही है तेरी प्राप्ति तो,
हे प्रकृति! कर दे मेरा खंडन,
तथा कर निर्मित मेरे प्रिय को मेरे खण्डों से,

जिससे पुष्पों की सुरभि से प्रसारित मेरी भावनाएं,
उस तक पहुंचे व,
सागर की लहरों में प्रवाहित मेरी तडपन,
प्रस्तर खण्डों से टकरा,
प्रतिध्वनित करे,
हे प्रिय! मैं तुझे असीम प्रेम करता हूँ|
हे प्रिय! मैं तुझे असीम प्रेम करता हूँ|


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