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Tuesday, December 26, 2017

अर्ध्य

मुझे ईर्ष्या है सागर की लहरों से|

शायद मैं लहरों के रूप में सीमाओं का अतिक्रमण कर सूर्य की गर्मी से उपहत तेरे पदचापों को शीतलता प्रदान कर पता (भले ही वाष्प बन कर स्व-अस्तित्व को तिरोहित करता)|

मेरा प्रेम सत्य है, किन्तु क्या कहूं? सत्य की सत्यता का भी तो कोई प्रमाण नहीं है| एक अनुभूति, एक अन्तः-प्रेरणा मात्र है|

टीलों पर चमकते रेत के कणों को सूर्य की लालिमा जब स्पर्श करती है- कल्पना करता हूँ की धरती से आकाश तक के सारे चमत्कारों को तेरे सौंदर्य की आभा से चमत्कृत करता|

पता नहीं यह तू ही है या मेरे मन में प्रतिबिम्बित प्रेम की प्रतिमा|

हे ईश्वर मुझे मुक्ति नहीं चाहिए, न ही जन्म अथवा मृत्यु से लगवा या भय| कोई कामना भी नहीं|

कामना है तो मात्र यह कि मेरी यह वेदना मेरे प्रिय की आँखों में अश्रु के दो बूँद पैदा कर पाती|

और हे प्रिय, तुझसे भी मेरी यही अभ्यर्थना है कि अश्रु के इन बूंदों को अपने पलकों के कोर में रोके रहना, तथा मेरे आने पर इन्हें धीरे से मेरी अंजुली में लुढ़क जाने देना|

जिससे हे प्रभु! मैं अपनी साधनाओं की इस अमूल्य निधि से तुझे अर्ध्य दे सकूं| 

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