वह मिला मुझे गली के उस मोड़ पर,
थोडा व्यग्र, थोडा निराश,
देख उसे सोचा मैंने,
क्यूँ पडूं इन चक्करों में?
मेरी खुद की दशा क्या बेहतर है?
किन्तु पता नहीं क्या था उसकी दृष्टि में,
मैं जाते जाते ठहरा और पूछा,
भाई! कोई help चाहिए ?
देखा उसने,
पर बोला नहीं कुछ,
और फिर बोल पड़ा,
अच्छा सुनो! बैठोगे थोड़ी देर ?
बड़ी थकान लग रही है|
थका तो मैं भी था,
पता नहीं किस वजह से?
बैठ गया,
हम दोनों आश्चर्यजनक तरीके से चुप रहे-बैठे रहे,
धीरे से उसने कहा,
आज मेरा जन्म-दिवस है,
और मुझे न जाने क्यूँ इस दिन बड़ी प्यास लगती है,
“Happy b’day to you” -मैंने हाथ
बढ़ाते हुए कहा|
मौन रहते हुए ही उसने स्वीकार की मेरी शुभकामना,
उसकी प्रतिक्रिया-विहिनता पर,
मैं सोचने को विवश था|
रास्ता भूल गया हूँ मैं,
कहाँ जाना है आखिर ये भी पता नहीं,
रूक जाऊं तो कहीं छूट न जाऊं,
इसी डर से चलता जाता हूँ,
हर साल जब लोग मुझे इसी दिन बधाई देते हैं,
मेरी थकान बढ़ जाती है,
और मिथ्या की इस मरीचिका से न बुझने वाली,
मेरी प्यास और विकल हो जाती है,
ये कहते-कहते वह रो पड़ा,
उसके रुदन में उसके पूरे वजूद की पीड़ा का दर्द था,
अजीब सी ही थी उसकी आवाज़,
जिसमें मुझे स्वयं की,
और न जाने कितने ही आवाज़ों की गूँज सुनायी दी|
थोड़ी देर हम चुप रहे,
फिर उसी वेदना-पूरित स्वर में उसने क्रंदन किया,
ऐसी सस्ती ज़िन्दगी का क्या मतलब यार?
मेरी थकान और प्यास को भी,
कुछ दिशा मिल रही थी,
कुछ टटोल रहा था मैं भी,
और अचानक आंसू छलक पड़े,
उसने छू दिया था अस्तित्व-सितार का वो तार,
जो पता नहीं कब से झंकृत ही नहीं हुआ था,
यद्यपि प्रति-वर्ष इस सितार की विधिवत पूजा होती है,
मिठाइयों और बधाइयों के साथ|
मैंने उसकी तरफ देखा,
और एक चांटा जड़ दिया,
वह उसी तरह शुष्क और मौन ही रहा,
मैंने कहा,
अरे यार!
बदले में मार तो देते,
मुझे अभी ठीक से रोना था,
धुलना चाहता हूँ मैं|
पता ही नहीं चला,
करीब घंटा गुजर गया था,
दुनिया की दौड़ की पुकार को,
अनदेखा कर,
हम बैठे रहे,
हम दोनों ही अब,
न जाने क्यूँ,
सहज और हल्का महसूस कर रहे थे|
जानते हो?
इस डर से इतना डरने की ज़रुरत नहीं,
हाँ- डर तो लगता है,
क्यूंकि पता नहीं जाना कहाँ है,
जहाँ सभी जा रहे हों,
वही सही रास्ता हो – ज़रूरी तो नहीं,
और क्या बाकियों को पता है,
कि जाना कहाँ है और क्यूँ?
पर जाना तो पड़ेगा ही
यहाँ नहीं तो वहाँ,
निकल कर ही तो ज्ञात होगा,
कि रास्ते में क्या है?
ये हर पड़ाव पर पहुँचने का दर्द,
और पहुँच जाने की विशिष्टता,
इन समस्त जय-पराजय, हर्ष-विषाद की अनुभूतियों का समुच्चय ही,
क्या पता गंतव्य हो?
या फिर न हो,
कुछ भी न हो,
किन्तु खोजकर ही पता चलेगा ना,
कि अनुसंधानार्थ कुछ है भी या नहीं?
तो फिर? मैंने प्रश्न किया,
यह भ्रमण, यह अन्वेषण की प्रक्रिया
ही है जीवन?
हाँ!,
अब फिर से wish करोगे मुझे?
एक और साल का तोहफा मुबारक मित्र!
समय के इस उपहार से,
तुम अंतर-वाह्य के रहस्यों का उद्घाटन कर सको,
मेरी शुभकामनाएं!
वो मुस्कुराया,
और मौन ही रहा,
हम कुछ देर आराम से बैठे रहे,
और फिर अपने-अपने रास्ते चल दिए|