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Monday, April 29, 2024

वीरांगना

 

प्रसूत, नव-कुसुमित था देश,

जिसकी नीवें थीं गहरीं और,

स्तम्भ प्रति स्तम्भ,

जो निर्मित होता था|

 

था सब कुछ नहीं ठीक,

चुनौतियाँ थीं अनेक,

तदापि, राष्ट्र-रथ सुचारू रूप से,

विकास-मार्ग पर चलता था|

 

जनता थी भोली पर मुखर,

प्रतिरोध और आन्दोलन करती थी,

कुटिल और मायावी तो,

ऐसे ही अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं|

 

ऐसा एक षड़यंत्र रचा,

सत्ता का लाभ उठाने को,

प्रलोभन दिए अनेक,

पूंजीपतियों, अधिकारियों व पत्रकारों को

 

हुआ भव्य आन्दोलन,

आप की यह लड़ाई थी,

क्षुब्ध जनता थी सड़कों पर आई,

थोड़ी सच, बातें सब हवाई थीं|

 

कुटिल थे वह भक्षक,

छद्म वेश धर, रक्षक बन आये थे,

कहते थे स्वयं को सेवक,

कर्म-प्रतिज्ञा बड़ी लाये थे|

 

रक्षा होगी सीमाओं की,

जन की, पशुओं की, संसाधनों की,

इन मिथ्या आश्वासनों पर कर विश्वास,

जनमानस निश्चिन्त सोता था|

 

उनकी कुटिलमय चालों को,

भेडिये जो छिपे थे व्याघ्र-खालों में,

तुमने उनको था पहचाना,

जनता को जगाने का ठाना|

 

उद्घोष किया तुमने,

कैसे देश के संसाधन,

शासक के अन्तरंग पूंजीपतियों को,

पारितोषिक में दिए जा रहे|

 

पूंजीवाद में होती प्रति-स्पर्धा,

नवाचार, नव-अनुसन्धान,

बढती है उत्पादकता,

रोज़गार के अवसर बनते हैं|

 

भयदोहन से कर प्रति-स्पर्धा बाधित,

अपने मित्रों को सुविधा देना,

यह प्रगतिशील पूंजीवाद नहीं,

शोषणकारी सामंतवाद है|

 

चोटिल होती अर्थव्यवस्था,

भरती स्वार्थियों की झोली,

मोटा कर, शुल्क भरते गरीब,

शासक के पालित छूट उठाते हैं|

 

आ हा हा, हे दैव, दैव,

लुट रहा देश का गौरव-वैभव,

क्रंदन करता जागृत-मानस,

देख यह नग्न, भीषण शोषण|

 

खडी हुई तुम सीना-तान,

प्रतिरक्षा हेतु माँ भारती-महान,

भयभीत नहीं, कोई मोह नहीं,

राष्ट्र-रक्षा से श्रेयस्कर, अन्य कोई टोह नहीं|

 

विचलित न हुई तू प्रलोभनों से,

आक्षेपों से, उपालम्भों से,

हर लूट का अनावरण किया,

प्रतिवाद किया, प्रतिकार किया|

 

जन-सेवा का भाव लिए,

तुम खड़ी प्रतिरोध-मशाल लिए,

क्या दीप्त-रूप, क्या रौद्र-रूप,

कितनी प्रज्ज्वल तेरी आभा|

 

कुटिलों ने रचा वह व्यूह-पाश,

कर क्रय पूरा संचार-तंत्र,

मिथ्यावाद प्रसारण-निमित्त,

जो बन चुका था कु-प्रचार तंत्र|

 

मिथ्या बातें, अनर्गल प्रलाप,

कुप्रचार-तंत्र का था प्रभाव,

जो तिल का ताड़ बनाता था,

सत्य को पार्श्व में छिपाता था |

 

छली-तंत्र, कर भ्रमित जनों को,

विषयों से भटकाता था,

शासक के स्वार्थ की वेदी पर,

राष्ट्र-हित की बलि चढ़ाता था|

 

तुमने कितने ही वार सहे,

लांछन सारे चुपचाप सहे,

गरिमा में रही तुम दृढ-स्थिर,

कर्त्तव्य-पथ से न किंचित विचलित,

 

तुम डटी रही प्रस्तर-गर्भा,

स्थित-प्रज्ञ राष्ट्र-प्रेम में,

जननी जन्मभूमि का अनुराग-रुधिर,

प्रवाहित तुम्हारे तन-मन में|

 

काली का रूप विकराल धरा,

तुमने ऐसा हुंकार भरा,

एकला ही चली निर्भीक नारी,

होने को रिपु-दल पर भारी|

 

जो होते वीर, दृढ-प्रतिज्ञ,

वह समझ बूझ कर चलते हैं,

सत्य-असत्य में कर भेद,

जन-हित के कारक बनते हैं|

 

ऐसे ही रहना तुम भयविहीन,

सत्यानुगामी, अन्वेषण-शील,

परवाह न करना तुच्छ जनों की,

जो हैं शील व आचरणहीन|

 

साधना सफल होगी तुम्हारी,

छल-प्रपंची पकडे जायेंगे,

राष्ट्रीय-संपत्ति, बहुमूल्य संसाधन,

ऐसे न बिकने पाएंगे|

 

जन-संसाधन रहेंगे सुरक्षित,

स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से पोषित,

नागरिकों के कुशलता व श्रम से,

आर्थिक उन्नति आ जाएगी|

 

उत्थान करेगा भारत-वर्ष,

जन जन हर्षित हो जायेगा,

पारस्परिक प्रेम, सौहार्द, एकता होगी,

तभी राम-राज्य भी आएगा|

 


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