अतिथि! सुना है तुम आ रहे हो,
स्वागत करता हूँ,
सच कहूं! कुछ संशय में हूँ,
क्या तुम्हें निमंत्रण देना उचित था?
क्या अभी भी रोक दूं तुम्हें आने से?
विविधताओं, अनिश्चितताओं से भरा यह संसार,
गूढ़ रहस्यों और जटिलताओं से भरा यह जीवन,
इस आमंत्रण से तुम्हारी मुश्किलें तो नहीं बढ़ा दी मैंने?
विचारों के इस गुम्फन से थकित और व्यथित होता हूँ,
फिर भी! चल पड़े हो तो आओ, स्वागत है |
तुम्हारी क्या और कैसे मदद कर पाऊंगा?
भौतिक सुख की सारी सुविधाएं उप्लब्ध होंगी यहाँ,
फिर भी इस साधन मात्र से तुम प्रसन्न रहोगे ?
संदेह है मुझे,
चलो! सिधार्थ की कहानी सुनाता हूँ|
अनेकोनेक भोग-विलासों में निमज्जित रहने पर भी,
सिधार्थ प्यासा था - पीड़ित तथा व्याकुल,
उसकी विकल वेदना में सत्य की अभिलाषा थी,
अनुसंधित्सु! तडपा और भटका वह,
गहन आत्मान्वेषण के प्राप्य ने सिधार्थ को बुद्ध बना दिया|
अतिथि! कितना कुछ कहना चाहता हूँ,
लेकिन मैं स्वयं ही यहाँ असहज अनुभव करता हूँ,
मेरे यहाँ होने का उद्देश्य क्या है?
कब आएगा वो पल ?
जब मैं निश्चिन्त इस कोलाहल से विदा ले पाउँगा,
क्या तुम भी मेरी तरह इसी भांति विचलित होगे?
हाँ मैंने बुलाया था तुम्हें,
तुमसे मिलने की उत्कंठा थी,
तथा अस्तित्व की चुनौतियों से तुम्हें परिचित कराने की ग्लानि भी,
स्नेह स्वीकार करना और अपराध क्षमा|
देखो! ये पेड़, ये फूल, ये चहचहाते पक्षी, ये फुदकती गिलहरी,
ये हवा, यह बहता पानी,
सब आत्मनिर्भर, स्व-प्रेरित,
स्वतः गतिमान हैं,
संचालित हैं,
उस सर्वत्र गुंजायमान मौन के कम्पनों से|
हे अतिथि,
तुम भी स्वावलंबी बनना,
परिश्रमी, धैर्यशाली, सुख-दुःख में समान,
विनम्र, विवेकी, और संवेदनशील,
करुणामय, सबको साथ लेकर चलना|
आनंद बटोरने में नहीं,
अर्जित कर उसे बांटने में है,
इस अमृत-वाणी को,
प्राणों में बसा, जीवन का आधार
बना,
अपना पथ प्रशस्त करना|
आओ अतिथि मित्र!
तुम्हारा अभिनन्दन!