प्रसूत, नव-कुसुमित था देश,
जिसकी नीवें थीं गहरीं और,
स्तम्भ प्रति स्तम्भ,
जो निर्मित होता था|
था सब कुछ नहीं ठीक,
चुनौतियाँ थीं अनेक,
तदापि, राष्ट्र-रथ सुचारू रूप से,
विकास-मार्ग पर चलता था|
जनता थी भोली पर मुखर,
प्रतिरोध और आन्दोलन करती थी,
कुटिल और मायावी तो,
ऐसे ही अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं|
ऐसा एक षड़यंत्र रचा,
सत्ता का लाभ उठाने को,
प्रलोभन दिए अनेक,
पूंजीपतियों, अधिकारियों व पत्रकारों को
हुआ भव्य आन्दोलन,
आप की यह लड़ाई थी,
क्षुब्ध जनता थी सड़कों पर आई,
थोड़ी सच, बातें सब हवाई थीं|
कुटिल थे वह भक्षक,
छद्म वेश धर, रक्षक बन आये थे,
कहते थे स्वयं को सेवक,
कर्म-प्रतिज्ञा बड़ी लाये थे|
रक्षा होगी सीमाओं की,
जन की, पशुओं की, संसाधनों की,
इन मिथ्या आश्वासनों पर कर विश्वास,
जनमानस निश्चिन्त सोता था|
उनकी कुटिलमय चालों को,
भेडिये जो छिपे थे व्याघ्र-खालों में,
तुमने उनको था पहचाना,
जनता को जगाने का ठाना|
उद्घोष किया तुमने,
कैसे देश के संसाधन,
शासक के अन्तरंग पूंजीपतियों को,
पारितोषिक में दिए जा रहे|
पूंजीवाद में होती प्रति-स्पर्धा,
नवाचार, नव-अनुसन्धान,
बढती है उत्पादकता,
रोज़गार के अवसर बनते हैं|
भयदोहन से कर प्रति-स्पर्धा बाधित,
अपने मित्रों को सुविधा देना,
यह प्रगतिशील पूंजीवाद नहीं,
शोषणकारी सामंतवाद है|
चोटिल होती अर्थव्यवस्था,
भरती स्वार्थियों की झोली,
मोटा कर, शुल्क भरते गरीब,
शासक के पालित छूट उठाते हैं|
आ हा हा, हे दैव, दैव,
लुट रहा देश का गौरव-वैभव,
क्रंदन करता जागृत-मानस,
देख यह नग्न, भीषण शोषण|
खडी हुई तुम सीना-तान,
प्रतिरक्षा हेतु माँ भारती-महान,
भयभीत नहीं, कोई मोह नहीं,
राष्ट्र-रक्षा से श्रेयस्कर, अन्य कोई टोह नहीं|
विचलित न हुई तू प्रलोभनों से,
आक्षेपों से, उपालम्भों से,
हर लूट का अनावरण किया,
प्रतिवाद किया, प्रतिकार किया|
जन-सेवा का भाव लिए,
तुम खड़ी प्रतिरोध-मशाल लिए,
क्या दीप्त-रूप, क्या रौद्र-रूप,
कितनी प्रज्ज्वल तेरी आभा|
कुटिलों ने रचा वह व्यूह-पाश,
कर क्रय पूरा संचार-तंत्र,
मिथ्यावाद प्रसारण-निमित्त,
जो बन चुका था कु-प्रचार तंत्र|
मिथ्या बातें, अनर्गल प्रलाप,
कुप्रचार-तंत्र का था प्रभाव,
जो तिल का ताड़ बनाता था,
सत्य को पार्श्व में छिपाता था |
छली-तंत्र, कर भ्रमित जनों को,
विषयों से भटकाता था,
शासक के स्वार्थ की वेदी पर,
राष्ट्र-हित की बलि चढ़ाता था|
तुमने कितने ही वार सहे,
लांछन सारे चुपचाप सहे,
गरिमा में रही तुम दृढ-स्थिर,
कर्त्तव्य-पथ से न किंचित विचलित,
तुम डटी रही प्रस्तर-गर्भा,
स्थित-प्रज्ञ राष्ट्र-प्रेम में,
जननी जन्मभूमि का अनुराग-रुधिर,
प्रवाहित तुम्हारे तन-मन में|
काली का रूप विकराल धरा,
तुमने ऐसा हुंकार भरा,
एकला ही चली निर्भीक नारी,
होने को रिपु-दल पर भारी|
जो होते वीर, दृढ-प्रतिज्ञ,
वह समझ बूझ कर चलते हैं,
सत्य-असत्य में कर भेद,
जन-हित के कारक बनते हैं|
ऐसे ही रहना तुम भयविहीन,
सत्यानुगामी, अन्वेषण-शील,
परवाह न करना तुच्छ जनों की,
जो हैं शील व आचरणहीन|
साधना सफल होगी तुम्हारी,
छल-प्रपंची पकडे जायेंगे,
राष्ट्रीय-संपत्ति, बहुमूल्य संसाधन,
ऐसे न बिकने पाएंगे|
जन-संसाधन रहेंगे सुरक्षित,
स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से पोषित,
नागरिकों के कुशलता व श्रम से,
आर्थिक उन्नति आ जाएगी|
उत्थान करेगा भारत-वर्ष,
जन जन हर्षित हो जायेगा,
पारस्परिक प्रेम, सौहार्द, एकता होगी,
तभी राम-राज्य भी आएगा|