मातृभूमि के प्रति भक्ति-भाव से पूरित,
संकल्प-युक्त, कर्मठ था वह स्वयं-सेवकों का दल,
गुणी, अध्ययन-शील, अनुशासित,
स्व को समूह में अर्पित करने को तत्पर|
जुड़ रहा था जनसमूह,
निर्मित हो रहा था राष्ट्र शनैः-शनैः,
जागृत हो रही थी,
सुषुप्त सनातन-चेतना|
था नहीं सब ठीक विश्व में,
युद्ध, आतंकवाद और आर्थिक-विषमताएं,
भारत भी था पीड़ित इन त्रासदियों से,
प्रगति-दर भी थी नहीं वांछित|
तात! यहाँ तक तो ज्ञात है न आपको?
हाँ वत्स! देख सकता था मैं भी विपर्यस्त व्यवस्था व् व्याप्त असंतुष्टता,
विकास के प्रकाश की खोज में,
मैं भी दल-सहित प्रयासरत था अनवरत|
किन्तु स्यात अब रुग्ण हो गयी हैं आखें,
या धुंधला सा है चहुँ-ओर,
कुछ भी सम्यक दृष्टिमान नहीं,
झूठ औ सच के भेद का ज्ञान नहीं|
चिंता न करें तात!
महाभारत के संजय की भांति, मैं बनूँगा आपकी आखें,
भारत-पुत्र, मैं भूला नहीं हूँ अपने संस्कारों को,
जिसमें है निहित, गुरुजनों की सेवा-सुश्रुषा का मूल्य|
साधु वत्स! साधु!
कहो!
किन्तु मेरा प्रत्याभिज्ञान कहता है कि छद्म-चमक के पार्श्व में,
माँ भारती अभी भी पीड़ित व रुदित है|
हा! सत्य ही अनुमान किया तात!
ग्लानि-ग्रस्त, फंसा हूँ अंतर्द्वंद्व में,
क्या छिपाऊं आपसे,
और क्या बतलाऊँ ?
हाँ तात!
धुंधला सा ही है सर्वत्र,
देख वही सकता,
जिसकी अंतर्दृष्टि हो जागृत|
अब तथ्यों और विचारों में,
दुष्कर है भेद करना,
दोनों एक दुसरे में गुम्फित,
तथ्य बलशाली के शस्त्र से निर्धारित होता है|
राष्ट्र-वाद, हिन्दू-रक्षक का स्वांग रच,
बहुरूपिये राज कर रहे,
जो क्षुद्र-अहंकार व् स्वार्थ सिद्धि को,
जन-सेवा की संज्ञा देते हैं|
संस्थाओं का होता खुला दुरूपयोग,
भय और अविश्वास व्याप्त सर्वत्र है,
चुनाव-जीतना ही मानो शासन का ध्येय-मात्र,
जनता बस रैलियों में भीड़ का स्तोत्र है|
राज की असफलताओं को आवृत करने हेतु,
सैनिक राजनैतिक विरोधियों के प्रति,
जनता को भड़काते हैं,
नित-नए मिथक रच, झूठी कथा सुनाते हैं|
महंगाई हो या अराजकता,
शासन के तुगलकी आदेश या अपरिपक्व नीतियां,
जनता अनमने मन से,
चुपचाप सहती जाती है|
स्वतंत्र विचारों पे है रोध यहाँ,
राजा की आलोचना पर पालित सेना,
देशद्रोह का अपराध लगा,
कठोर दंड दिलवाती है|
शासन की कार्य-प्रणाली का विरोध,
राजा के अहंकारी आदेशों का प्रतिरोध,
देश-द्रोह कैसे हुआ तात?
क्या व्यक्ति देश से बड़ा हो गया?
तात मौन थे,
मानो किसी गहन-चिंतन में लीन
थे द्रवित,
यथा-स्थिति के इस वर्णन से,
तो मेरी आशंका ठीक ही थी,
यह कह,
उस विशाल-मस्तक, प्रशांत मुख के नयन-कोरों से,
दो अश्रु-कण छलक पड़े|
प्रश्न अनेक थे,
उत्तर न कोई,
गंभीर था वातावरण,
जिसमें शून्य की नीरवता थी गुँजित|
तरुण शिष्य - अधीर, उत्सुक,
आचार्य-तात को मुखरित,
उनके मंतव्य की,
प्रतीक्षा में था|
क्या सभी वृद्ध हो गए?
क्या सबकी आँखें कमज़ोर औ वाणी शिथिल हो गयी?
कहाँ गया वह,
कटिबद्ध, कर्मरत राष्ट्र-सेवकों, स्वयं-सेवकों का दल?
क्या वे भी राज-पालितों द्वारा खदेड़ दिए गए?
या राजा की सेना में,
पारितोषिक प्राप्त, वेतनधारी हो,
कर्त्तव्य-चुत हो गये?
वत्स! ह्रदय-विदीर्ण हुआ जाता है,
इन बातों से अब श्वास रुँधता है,
ले चलो मुझे यहाँ से,
सूदूर किसी शांति वन में |
अहा! यह दहकती ग्रीष्म में शीतल बयार की भांति,
कोयल जैसी माधुर्य लिए, सुरचित ताल से संचालित,
रागिनियों पे खेलती,
मधुर संगीत-ध्वनि कहाँ से आ रही?
अरे, यह कौन है बालिका,
नन्हीं परी,
प्रिये!
तू क्या देवलोक से आई है?
दौड़ी आई नन्हीं बाला,
किया नमन तात को,
मैं इसी देश की पुत्री हूँ तात
भारत पुत्री – भारती!
निश्छल, निर्मल, निर्दोष-वह मुखावेश,
गरिमामयी, सुन्दर, सुखकर - वह शिशु वाणी,
स्मित-मुख थे तात,
थीं स्नेह-सिक्त आँखें सजल |
देखो वत्स! यह सुन्दर अल्पना भारती की,
भारत का यह मानचित्र,
जो हर दिशाओं में ज्ञान-दीप से प्रज्जवलित,
तरुण प्रहरियों के सजग-बोध से रक्षित|
भारती कर रही थी नृत्य-अभ्यास,
कितनी चपलता, क्या भाव-विभाव,
कितनी तल्लीनता, क्या समर्पण,
साधु पुत्री, साधु!
तात स्वयं ताल दे रहे थे भारती के पदचापों को,
धा धिन धिन धा, धा धिन धिन धा,
तीन ताल की थापों से,
वायुमंडल था निनादित|
हे पुण्य-भूमि, हे मातृभूमि!
जननी, पालक, धरित्री महान,
धिन धिनाक धिनाक,
धिन धिनाक धिनाक|
आवर्त-पूर्ण, रिपु चूर्ण चूर्ण,
विकराल काल, बन ढाल विशाल,
हे देव हिमालय, उत्तुंग-श्रिंग,
तिन ता तिरकित, तिन धिनाक धिनाक|
सम्मोहक नृत्य था भारती का,
तात आवाहन करते नटराज-शिव का,
उमानाथ, गिरिजापति, गिरीश, नीलकंठ,
हे रूद्र, अघोर, योगी प्रधान|
तिरकित तिरकित तिन तिन धिनाक,
शिव-तांडव – सृजन का विध्वंश गान,
हो प्रसन्न भगवती, देवी कात्यायनी,
प्रणत, नमन करते भरत औ भारती|
निनादित, शुचित था परिवेश,
वादन प्रहस्त, आरक्त हस्त,
चलती रही साधना तात की,
थी नृत्य से क्लांत भारती भी|
यह देख तरुण बोला - धृष्टता क्षमा हो आचार्य,
आहत-हस्त हैं आपके,
अब तनिक विश्राम करें,
कृपा कर आवाहन निष्पन्न करें|
होने लगा अवरोहण ताल का,
निबद्ध पदाक्षेप शिथिल हुए,
अपने उत्तरीय से तरुण ने,
तात के मुखावृत स्वेद-कणों को पोंछा|
वत्स! भयभीत न हो अहंकारी राजा औ उसकी सेना से,
असली देश-द्रोही तो वे स्वयं हैं,
जो राष्ट्र के संसाधनों को,
अपने षड्यंत्री, पूंजीपति मित्रों को यूँ ही बांटे जाते हैं|
इस क्षुद्र राजनीति से निराश न हो,
अनुसंधान कर,
नए उत्पाद, नई वस्तुएं, नई सेवाओं का,
आविष्कार कर|
जन-जन की सेवा,
सर्व-समावेशी आर्थिक उन्नति से ही संभव है,
इस महत कार्य में हो अनुरत,
नव-निर्माण कर|
पोषित भारत, रक्षित भारत,
धनी भारत, फलित भारत,
ऐसे स्वस्थ, विकसित भारत का,
यथा-संभव परिष्कार कर|
छोड़ दो उस दल को जो व्यक्तिपरक हो चुका है,
तुम्हारा पथ-प्रदर्शक हो तुम्हारी चेतना,
तथा इस जननी के प्रति,
तुम्हारा जीवन-पर्यंत कर्त्तव्य-बोध|
विमुख रहो षड्यंत्रों से,
कायरता का परिचायक यह,
धीर-वीर, योग्य पुरुष कुटिलता तज,
प्रकृति की गोद में सृजन किया करते हैं|
रहो सदैव ऐसे ही,
सुन्दर, विनम्र, उत्साही,
प्रबुद्ध, सजग, सतत प्रयास-रत,
बनो तुम कल के विकास-यान के नियंता,
प्रियों, कोई भी प्रयास निरर्थक नहीं होता,
स्वावलंबी, गुणी, प्रसादित योद्धा ही,
जीवन की रणभूमि में,
अंतत: विजयी होते हैं|
आ सरले! कितनी प्रतिभाशालिनी, तेजस्विनी है तू,
आ तात के अंक लग,
मैं अपना सारा पुण्य-आशीष,
तुझे अर्पित कर दूं |
आओ वत्स! भारत-पुत्र भरत,
गर्वित ललाट, प्रशांत-मुख,
स्नेह-सिक्त कर दो मुझे अंक लग,
ले लो मेरा सब आशीष, सब संचित-पुण्य |
ऐसा कह तात उठे,
प्रस्थान करूँगा मैं अब – संन्यास हेतु, कोलाहल से दूर,
जगत-जननी परा शक्ति,
तुम सबकी रक्षा करे!|