दो शब्द,
तुम और मैं,
और इन दोनों के मध्य सिमटा,
एक वृहत, स्वप्निल संसार|
अनकही बातें, घनीभूत पीड़ा,
अनछुआ स्पर्श – तुम्हारे
होने का,
और ऐसे कितने सपने,
जो देखे ही नहीं गए,
उन सपनों के भविष्य से
वर्तमान होने की चाह में,
जिए जा रहा हूँ|
तुम भी तो अछूती नहीं होगी,
इस अदृश्य भाव-तरंग से,
फिर क्यूँ न बह जाने दिया
स्वयं को?
क्या तुम्हें ज्ञात नहीं था
कि,
अव्यक्त प्रेम की उच्छल तरंगों
में अन्तर्निहित,
जिम्मेदारी और भरोसे की
शिला का आधार होता है?
न जाने क्यूँ भटक गए हम,
संशय और भय की आंधी से,
विश्वास है मुझे,
हमारा मिलन घुमड़ते हुए
आशंकाओं के सारे बवंडरों को ,
शमित कर देता|
तुम और मैं,
दूर भले ही हों,
समाप्त नहीं हैं,
तुम और मैं,
जीवन की गाथा हैं,
जिसकी परिणति हम सब के लिए,
सुखद होगी|
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