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Tuesday, July 24, 2018

दो शब्द


दो शब्द,
तुम और मैं,
और इन दोनों के मध्य सिमटा,
एक वृहत, स्वप्निल संसार|

अनकही बातें, घनीभूत पीड़ा,
अनछुआ स्पर्श – तुम्हारे होने का,
और ऐसे कितने सपने,
जो देखे ही नहीं गए,
उन सपनों के भविष्य से वर्तमान होने की चाह में,
जिए जा रहा हूँ|

तुम भी तो अछूती नहीं होगी,
इस अदृश्य  भाव-तरंग से,
फिर क्यूँ न बह जाने दिया स्वयं को?
क्या तुम्हें ज्ञात नहीं था कि,
अव्यक्त प्रेम की उच्छल तरंगों में अन्तर्निहित,
जिम्मेदारी और भरोसे की शिला का आधार होता है?

न जाने क्यूँ भटक गए हम,
संशय और भय की आंधी से,
विश्वास है मुझे,
हमारा मिलन घुमड़ते हुए आशंकाओं के सारे बवंडरों को ,
शमित कर देता|

तुम और मैं,
दूर भले ही हों,
समाप्त नहीं हैं,
तुम और मैं,
जीवन की गाथा हैं,
जिसकी परिणति हम सब के लिए,
सुखद होगी|

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