मैं चला जाऊंगा एक दिन मगर,
कवितायेँ मेरी बोलेंगी,
करेंगी उद्घाटन मेरे मन-रहस्य का,
करेंगी उद्घाटन मेरे मन-रहस्य का,
जो थी तीक्ष्ण तड़पन तुम्हें पाने की,
वो चाह उन पंक्तियों में तुम्हें टटोलेगी|
लेकिन है कहाँ वो कविता?
जिसमे गुथे हों,
वो भाव, वो शब्द, वो अनिर्वचनीय वेदना,
जो तुम्हारे प्रति,
मेरे प्रेम की भव्यता का द्योतक हो|
अच्छा सुनो तो,
अनिवार्य है कि कविता केवल शब्दों में विद्यमान
हो?
तुम्हारी उपस्थिति में,
मेरे सुध-बुध खो जाने की प्रक्रिया,
क्या कविता नहीं है?
तुम्हारी आवाज़ की खनक,
सरगम में पिरोई रागिनी की मधुरता लिए,
जब मुझे तुम्हारे सरस मोह-पाश में,
बिद्ध कर लेती है,
क्या वो कविता नहीं है?
रूठ जाने पर वो तुम्हारा मुखावेश,
और मेरे अंतर्मन में संचारित भावों का उधेड़बुन,
तद्जनित भयमिश्रित प्रेम के रोमांच से,
मेरा कुछ कहते हुए भी न कह पाना,
क्या कविता नहीं है?
अब बताओ ज़रा!
क्या आसान है -इन सबको शब्दों में बटोरना और
व्यक्त करना?
और मैं क्यूँ ही रचूँ कविता?
जब तुम्हारे स्मरण मात्र से ही,
मैं स्वयं कविता बन जाता हूँ|
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