ओ अमूर्त कल्पना के सजीव चित्र,
कितनी तीक्ष्ण है तुम्हारी अन्स्पर्श छुअन,
देह, मानस और आत्मा को चीरती हुई,
मुझमें द्रवित और खुद में मुझे डुबोती हुई,
जैसे मन-मीन का आनंद-सरिता में उन्मुक्त प्लवन|
कुछ भी पा जाऊं, अधूरा है मेरा प्राप्त,
यश, धन और ये सामाजिक सरोकार,
क्यूँ नहीं देते मुझे जीवित होने का भान?
कितना भी जी लूं, नहीं भर पाती वो श्वास,
तुम्हारे सानिध्य में मैं जो भर पाती उड़ान|
जीवन यदि द्वंद्व-मरुस्थल है, फिर यह प्रेम-मरीचिका
क्यूँ?
जन्मों का विरह और फिर मिलन, मिलन यह अपूर्ण क्यूँ?
चलते जाते हैं पड़ाव दर पड़ाव, गंतव्य है भी कोई?
अनेकों ऐसे प्रश्न मेरे, उठते बार बार,
कब तक मैं करूँ उपेक्षित अपनी अंतर्रात्मा की आवाज़|
कहाँ मिलेगा वो ध्येय, तदार्थ समर्पित कर सकूं स्वयं को?
कहाँ मिलेगा वो स्तोत्र, मुक्ति-रस पी सकूं
जिससे छक कर?
कहाँ मिलेगी वो आग, तप कर जिसमें निखर जाऊं?
कहाँ मिलेगा वो कान्हा, जिसकी राधिका बन जाऊं?
ऐसे प्रश्न मेरे अनुत्तरित, उठते बार बार,
कब तक मैं करूँ उपेक्षित अपनी अंतर्रात्मा की आवाज़|