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Saturday, January 25, 2020

प्रतिश्रुति


ओओ-ओओ, आयेंन-आयेंन, क्वाँआँ-क्वाँआँ,
देखो! मैं अवतरित हो गया,
माँ के गर्भ में बाहर आने की आकुलता थी,
और बाहर का यह संसार,
मेरे लिए एक वृहत रहस्य|

बस सोता हूँ और रोता हूँ,
रोता भी कहाँ हूँ?
यह तो मेरा संवाद है,
उस जगत से,
जहाँ से मैं आया हूँ|

तुम मुझमें अपना बचपन देखते हो,
और मैं तुममे अपना भविष्य,
बस प्रेम की भाषा समझता हूँ,
रूप मेरे लिए अपरिचित है,
भावों की ध्वनि सुनता हूँ मैं,

ये पौधे, चिड़िया, तितली और फूल,
सब मेरे दोस्त हैं,
निर्दोषता के पालने पर,
हम साथ-साथ झूलते, खेलते और हँसते हैं,
तुम भी आओ और खेलो मेरे साथ|

मम्मी मुझे अंक में भर दूध पिलाती हैं,
मोहक कपड़े पहना मुझे आकर्षक बनातीं हैं,
पापा मुझे देख मुस्कुराते और रोचक लोरियां सुनाते,
साथ मिलकर हम ओमकार करते,
ॐ – जिसमे समस्त ब्रम्हांड का कम्पन निहित है|

शनैः शनैः मैं परिचित होऊंगा,
इस सृष्टि और इसकी विविधिताओं से,
मानव-जीवन और इसकी जटिलताओं से,
जो अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, वर्ण-वर्ग के द्वंद्वो से परे,
सबके लिए समान है|

मुझसे सभी प्यार करते,
क्यूंकि मैं मानव का भविष्य हूँ,
उसकी सभ्यता व संस्कृति का वाहक,
इसीलिए इतिहास समझते हुए मुझे वो गलतियाँ नहीं करनी,
जिनके दुष्परिणाम मानव जाति भुगत चुकी है|

प्रगति क्या है? प्रकृति से हमारा सहचर का नाता कैसे हो?
दुःख क्यूँ है? इसका समूल निवारण कैसे हो?
क्या अविभाजित मानव संभव है?
देश प्रेम और कट्टरता, संकीर्णता व व्यापकता का अंतर क्या है?
इन सब प्रश्नों का उत्तर ढूंढना होगा|

मैं ही मानवता का पुण्य हूँ, मैं ही उसमें छिपा दानव,
इस अन्तर्निहित विरोधाभास को आत्मसात करते हुए,
सही राह पर संभल कर आगे बढ़ना होगा,
भय, ईर्ष्या, मोह, अहंकार, क्रोधादि मनोवेगों से निर्मित,
इस भाव-संसार को तरना होगा|

जिम्मेदारियां बड़ी हैं, किन्तु असाध्य नहीं,
मंथन कर मुझे संधान करना होगा उस ‘शाश्वत’ सत्य का,
जिसके आनंद-गान से मैं सबके जीवन को संगीतमय कर सकूं,
यही मेरे आने वाले जीवन का संकल्प है,
यही है मेरे अस्तित्व की प्रतिश्रुति |


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