आत्म-प्रवंचनाओं के निविड़ में,
नैराश्य की छाँव में बैठा,
मैं सोचता था,
हँसते क्यूँ हैं लोग-
क्या दूसरों के उपहास हेतु?
या ऐसे ही सुख की खोज में-
स्यात हँसने से सुख मिल जाये,
नहीं समझ पाया था महत्व उस हंसी का,
जो होती है विमुक्त,
दुःख-सुख की सीमाओं से परे,
अनंत उल्लास की परिणति|
अकस्मात् मिलने पर,
जब भी देखता,
तेरा वह मधुर, मोहक, आकर्षक स्मित,
नहीं समझ पता कि,
यह मेरी श्लाघा है या तिरस्कार|
देखता जब भी खुले आकाश के नीचे,
स्वयं में ही मग्न तुझे व,
तेरा मसृण, प्रशांत मुखमंडल,
एक हूक सी उठती सीने में,
नहीं ज्ञात कर पाता उद्गम,
इस दर्द के प्रवाह का,
एक ऐसा दर्द,
जो अपना सा कुछ खोने पर होता है|
इस प्रकार अज्ञात दुखों से पीड़ित,
स्वनिर्मित मरीचिकाओं से था भ्रमित,
किन्तु! उस दिन तुमने,
जब नाम ले मुझे पुकारा,
पता नहीं क्या था उस संबोधन में,
सिंचन - जो एक प्रेम पिपासु का,
सौंदर्य-सरिता के प्रवाह द्वारा था,
या फिर घना प्रेम,
जो मेरे प्रेम की भांति,
छिपा था तेरे अंतर्मन में,
अन्ततः तडपन की अग्नि से हो गलित,
प्रवाहित हो गया|
जो भी हो तेरा संबोधन,
सहानुभूति, प्रेम या निरा संबोधन मात्र,
मैं खुश था, बहुत खुश,
क्यूंकि मुझे मेरी
'पहचान' मिल गयी थी|
शब्दार्थ : प्रवंचना - Misconception, निविड़ - घोंसला/घर, नैराश्य - निराशा, स्यात - शायद, अकस्मात् - अचानक, स्मित - मुस्कान, श्लाघा - प्रशंसा , मरीचिका - Mirage
नैराश्य की छाँव में बैठा,
मैं सोचता था,
हँसते क्यूँ हैं लोग-
क्या दूसरों के उपहास हेतु?
या ऐसे ही सुख की खोज में-
स्यात हँसने से सुख मिल जाये,
नहीं समझ पाया था महत्व उस हंसी का,
जो होती है विमुक्त,
दुःख-सुख की सीमाओं से परे,
अनंत उल्लास की परिणति|
अकस्मात् मिलने पर,
जब भी देखता,
तेरा वह मधुर, मोहक, आकर्षक स्मित,
नहीं समझ पता कि,
यह मेरी श्लाघा है या तिरस्कार|
देखता जब भी खुले आकाश के नीचे,
स्वयं में ही मग्न तुझे व,
तेरा मसृण, प्रशांत मुखमंडल,
एक हूक सी उठती सीने में,
नहीं ज्ञात कर पाता उद्गम,
इस दर्द के प्रवाह का,
एक ऐसा दर्द,
जो अपना सा कुछ खोने पर होता है|
इस प्रकार अज्ञात दुखों से पीड़ित,
स्वनिर्मित मरीचिकाओं से था भ्रमित,
किन्तु! उस दिन तुमने,
जब नाम ले मुझे पुकारा,
पता नहीं क्या था उस संबोधन में,
सिंचन - जो एक प्रेम पिपासु का,
सौंदर्य-सरिता के प्रवाह द्वारा था,
या फिर घना प्रेम,
जो मेरे प्रेम की भांति,
छिपा था तेरे अंतर्मन में,
अन्ततः तडपन की अग्नि से हो गलित,
प्रवाहित हो गया|
जो भी हो तेरा संबोधन,
सहानुभूति, प्रेम या निरा संबोधन मात्र,
मैं खुश था, बहुत खुश,
क्यूंकि मुझे मेरी
'पहचान' मिल गयी थी|
शब्दार्थ : प्रवंचना - Misconception, निविड़ - घोंसला/घर, नैराश्य - निराशा, स्यात - शायद, अकस्मात् - अचानक, स्मित - मुस्कान, श्लाघा - प्रशंसा , मरीचिका - Mirage
2 comments:
Wow! Haven’t come across such beautiful Hindi in recent times! Lovely.
Ohh. Thanks Anumita.
This piece I had written in my 3rd year of college.
Was going through the old stuff; transferring the old writings from notebook to the blog :)
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